आधुनिक भारत का इतिहास (Modern Indian History in Hindi)
आधुनिक भारत का इतिहास (Modern Indian History in Hindi)
यूरोपीय कम्पनियाँ
- 1453 ई0 में कुस्तुन (तुर्की) के पतन के बाद, भारत और यूरोप के बीच व्यापारिक मार्ग बंद हो गए। इसके परिणामस्वरूप, पूर्वी क्षेत्र के मसाला व्यापार पर मुस्लिम व्यापारीगण का एकाधिकार स्थापित हुआ।
- वहीं, यूरोप में मसालों के वितरण का एकाधिकार इटली के व्यापारियों के हाथों में आ गया।
- भौगोलिक अन्वेषण और नई दुनिया की खोज के परिणामस्वरूप, वाणिज्यिक व्यापार को प्रोत्साहन मिला।
- इस प्रक्रिया में सबसे पहले पुर्तगाल और स्पेन द्वारा विकसित किया गया।
- कोलंबस ने नई दुनिया (अमेरिका) की खोज की, और वास्कोडिगामा ने भारत की खोज की।
- यूरोपीय कम्पनियां भारत के साथ व्यापार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई क्योंकि अमेरिका ने कीमती धातुओं की आपूर्ति की।
- भौगोलिक अन्वेषणों के परिणामस्वरूप, एक त्रिकोणीय व्यापारिक नेटवर्क विकसित हुआ, जो पश्चिमी अमेरिका से लेकर पूर्वी चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैल गया।
- पुनर्जागरण और धर्मसुधार जैसे बौद्धिक, सांस्कृतिक आंदोलनों ने भौगोलिक खोजों को दिशा प्रदान की, और वाणिज्य व्यापार के विकास में यूरोप के शासकों की भी मुख्य भूमिका रही है।
पुर्तगाली
- भारत में आने वाले यूरोपीय कम्पनियों की श्रृंखला में सबसे पहले पुर्तगाली कम्पनी आई।
- वास्कोडिगामा (पुर्तगाली) ने भारत के नए मार्ग की खोज की, और इसके बाद पुर्तगालियों ने भारत में अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किए।
- इन्होंने कालीकट, कोच्चीन, और मन्नौर में अपने केंद्र स्थापित किए। इनका प्रारंभिक मुख्यालय 1502 में कोच्चीन में स्थापित हुआ।
- 1505 में, इन्होंने प्रथम गवर्नर पद की स्थापना की। प्रथम गवर्नर के रूप में फ्रांसिस्को डी अल्मीडा को नियुक्त किया गया, जिन्होंने “वाब्टी ब्लू पॉलिसी” को जारी किया।
- 1509 में, पुर्तगाली ने हॉर्मुज पर कब्जा किया (दीव का युद्ध)।
- इसके बाद, 1510 में वे गोवा पर यूसुफ आदिल शाह से कब्जा कर लिया।
- 1530 में, नूना-डी-कन्हा के समय गोवा को मुख्यालय बनाया गया।
- अंत में, पुर्तगालियों का साम्राज्य हॉर्मुज से लेकर मलक्का की खाड़ी तक विस्तृत हो गया।
- इस साम्राज्य को “एस्तादो दा इंडिया” कहा गया।
पुर्तगालियों की नीति
- पुर्तगाली ने एशिया में प्रचलित खुले समुद्र की नीति को छोड़ दिया और एक नई व्यवस्था कायम की, जिसे “कार्ट्ज व्यवस्था” कहा गया।
- इस व्यवस्था के अंतर्गत, भारतीय व्यापारीयों को पुर्तगाली व्यापारीयों से एक परमिट प्राप्त करना पड़ता था, जिसके बाद वे एशिया के अन्य हिस्सों से व्यापार कर सकते थे।
- पुर्तगालियों ने भारत और दक्षिण एशिया से मसालों के निर्यात पर विशेष महत्व दिया, और उनका मुख्य क्षेत्र मालाबार तट पर केंद्रित रहा।
- पुर्तगालियों ने भारत में धार्मिक कट्टरता का नाटक किया और तलवार के द्वारा ईसाइयत का प्रचार किया।
- पुर्तगाली भारत में व्यापार के साथ ही लूटमार का काम भी करते थे।
- पुर्तगाली व्यापार की वस्तुएं जो भारत से निर्यात करते थे इनमें काली मिर्च, हाथी दाँत, रेशम, और नील शामिल थे।
पुर्तगालियों के पतन के कारण
पुर्तगाली पतन के कुछ कारण निम्नलिखित हैं:
- पुर्तगाल एक छोटा देश था और उनके पास संसाधनों की कमी थी, इसलिए उनकी नीति व्यापार के साथ ही लूटमार पर भी केंद्रित थी।
- पुर्तगालियों की नीति में समुद्र पर एकाधिकार और धार्मिक कट्टरता का नाटक भारतीय राज्यों के साथ उनके असंतोष को बढ़ा दिया।
- 1580 ई0 में स्पेन द्वारा पुर्तगाल का विजय हुआ और 1588 ई0 में ब्रिटिश नौसेना ने स्पेन को पराजित किया, इससे पुर्तगाल के भविष्य का निर्धारण ब्रिटिश नीति पर आधारित हो गया।
पुर्तगाली गतिविधियों का केंद्र ब्राजील की खोज के बाद पश्चिम की ओर स्थानांतरित हुआ। पुर्तगाली कम्पनी एक सरकारी कम्पनी थी, जिसे निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं थी। पुर्तगाली को हुगली (बंगाल) से खदेड़ा-शाहजहाँ ने।
डच
- डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1602 में हुई थी, और कंपनी का पूरा नाम “वेरिंगदे ओस्टइंदिशे कम्पनी” था।
- पहली बस्ती की स्थापना 1605 में मसूलीपट्टनम (आंध्रप्रदेश) में की गई थी, और 1610 में पुलिकट (आंध्रप्रदेश) को मुख्यालय बनाया गया।
- 1616 में कंपनी ने सूरत में एक बस्ती स्थापित की और 1632 में पटना में भी एक बस्ती स्थापित की।
- 1690 में मुख्यालय को नागापट्टनम में स्थानांतरित किया गया, जबकि 1689 तक पुलिकट ही मुख्यालय था।
- पुलिकट में कंपनी ने पैगोडा नामक स्वर्ण सिक्के का व्यापार किया, साथ ही मील, सूती वस्त्र, शोरा, और मसालों का व्यापार भी किया।
- भारतीय वस्त्रों को निर्यात की प्रमुख वस्तु बनाने का श्रेय मुख्यतः कंपनी को जाता है।
डच और ब्रिटिश कंपनियों का आगमन
- 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में (1600-1700) डच और ब्रिटिश कंपनियों के आगमन के साथ ही पुर्तगाली कंपनी का व्यापारिक एकाधिकार टूट गया।
- जहाँ पुर्तगाली कंपनी एक सरकारी कंपनी थी, वहीं डच और ब्रिटिश कंपनियां एक संयुक्त उद्यम (जॉइंट स्टॉक) कंपनियां थीं। इनके पास संसाधन अधिक थे और इन्हें निर्णय लेने में भी अधिक स्वतंत्रता थी।
- इसके परिणामस्वरूप, पुर्तगाली कंपनी ने भारत, श्रीलंका और अरब सागर क्षेत्र में हॉर्मुज तक का क्षेत्र ब्रिटिश कंपनी के हाथों खो दिया, जबकि डच कंपनी को पूर्व में मलक्का का क्षेत्र भी खो दिया। इस प्रकार, पुर्तगाली का साम्राज्य ब्रिटिश और डच कंपनियों के मध्य बट गया।
अंग्रेज
- जॉन मिल्डेन हॉल थल मार्ग से 1599 ई0 में भारत आया था।
- 1599 ई0 में ही इंग्लैण्ड में एक मर्चेन्ट एडवेन्चर्स नामक दल ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी (BEIC) की स्थापना की। इस कम्पनी की स्थापना के साथ ही इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम द्वारा 1600 ई0 में एक चार्टर के माध्यम से कम्पनी को 15 वर्षों के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने के लिए एकाधिकार पत्र प्रदान किया गया।
- जेम्स-I द्वारा 1609 ई0 में इस एकाधिकार पत्र को अनिश्चित काल के लिए बढ़ा दिया गया ।
- 1608 ई0 में ब्रिटेन के सम्राट जेम्स प्रथम के राजदूत के रूप में कैप्टन हॉकिन्स (हेक्टर जहाज से) सूरत आया और 1609 ई0 में मुगल दरबार, आगरा में जहांगीर से मिलने के लिए पहुँचा।
- सम्राट जहाँगीर ने उसे “इंग्लिश खान” (फिरंगी खान) व “400 का मनसब” प्रदान किया।
- प्रारम्भ में जहाँगीर ने अंग्रेजों को फैक्ट्री स्थापित करने की अनुमति नहीं दी, किन्तु सूरत में एक छोटा बेस बनाने की अनुमति दी।
- इसी दौरान, 1611 ई0 में अंग्रेजों की दक्षिण भारत में पहली फैक्ट्री मसूलीपट्टनम में स्थापित हुई।
- 1612 ई0 में कैप्टन वेस्ट (ड्रैगन जहाज) और मिड्डल्टन के नेतृत्व में अंग्रेजों ने स्वाले की लड़ाई में पुर्तगालियों को पराजित कर दिया। तदोपरांत, 1613 ई0 में अंग्रेजों को सूरत में व्यापारिक कोठी स्थापित करने की अनुमति दी गई।
- 1615 ई0 में सर टॉमस रो अपने गुरू टैरी के साथ मुगल दरबार पहुँचा और वह मुगल दरबार में लगभग 1619 ई0 तक रहा और उसने मुगल साम्राज्य के भीतर व्यापारिक कोठियों को स्थापित करने की अनुमति प्राप्त कर ली।
- 1623 ई0 तक अंग्रेजों की व्यापारिक फैक्ट्रियाँ अहमदाबाद, आगरा, भड़ौच, इत्यादि जगहों पर स्थापित की जा चुकी थी, किन्तु 1635 में सूरत की किलेबंदी के परिप्रेक्ष्य में आंग्ल-मुगल संघर्ष उत्पन्न हुआ।
- इसके बाद, ब्रिटिशों का मुख्य लक्ष्य भारत के तटीय क्षेत्रों को नियंत्रित करना था।
- इस प्रक्रिया में, 1632 ईस्वी में अंग्रेजों ने गोलकुण्डा के सुल्तान अब्दुल्ला कुतुबशाह से वार्षिक 500 पैगोड़े की कर के बदले व्यापारिक रियासतों को प्राप्त किया।
- इसके बाद, 1639 ईस्वी में फ्रांसीस डे नामक अंग्रेज ने चंद्रगिरी के राजा से महास को पट्टे पर प्राप्त किया।
- इसी समय अंग्रेजों ने अपने पहले किले, फ़ॉर्ट सेंट जॉर्ज का निर्माण किया।
- इसके बाद, 1651 ईस्वी में बंगाल के नवाब शाहशुजा ने 3000 रुपये की वार्षिक कर के बदले अंग्रेजों को बंगाल में व्यापारिक विशेषाधिकार प्रदान किए।
- 1658 ईस्वी तक बंगाल, बिहार, उड़ीसा से लेकर कोरोमण्डल तट तक की सभी ब्रिटिश व्यापारिक कारखाने फ़ॉर्ट सेंट जॉर्ज के अधीन आ गए।
- 1661 ईस्वी में पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन ब्रेगांजा और ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स II का विवाह संपन्न हुआ और इसके परिणामस्वरूप बम्बई को दहेज में दिया गया, जिसे ईआईसी ने 1660 में 10 पौंड की वार्षिक किराए पर अधिग्रहण किया।
- इसके बाद, 1687 ईस्वी में कंपनी का मुख्यालय सूरत से हटकर बम्बई में स्थापित किया गया।
- मुग़ल सम्राट औरंगजेब और ब्रिटिशों के बीच पहला संघर्ष 1686 ईस्वी में हुगली (बंगाल) में हुआ।
- इस युद्ध में मुग़ल सम्राट विजयी रहे, लेकिन बाद में अंग्रेजों के माफ़ी के बाद उनके व्यापारिक अधिकार सौंपे गए और फिर कंपनी ने इब्राहीम खान नामक ज़मींदार से सुतानती, गोविंदपुर और कोलकाता ।की ज़मींदारी प्राप्त की।
- इन तीन क्षेत्रों को मिलाकर जॉब चारनाक ने आधुनिक कलकला की स्थापना की। कलकत्ता में फोर्ट विलियम (1700 ई०) का निर्माण किया गया।
- जॉन सरमन के नेतृत्व में 1717 ई0 में एक ब्रिटिश दूत मण्डल ने मुग़ल सम्राट फर्रुखसियर के दरबार में पहुँचकर व्यापारिक (1713-19) रियासतों को प्राप्त करने के लिए कदम रखा था।
- इस प्रतिनिधि मण्डल में एक सर्जन विलियम हैमिल्टन भी था, जिन्होंने सम्राट को एक गंभीर रोग से मुक्ति दिलाई। इसके परिणामस्वरूप, मुग़ल सम्राट ने कम्पनी को व्यापारिक अधिकारों का महाअधिकारपत्र दिया, जिसमें निम्नलिखित प्रावधान थे:
- बंगाल में 30,000 रुपए वार्षिक कर के बदले मुक्त व्यापार की अनुमति।
- सूरत में 10,000 रुपए वार्षिक कर के बदले व्यापार की अनुमति।
- मुम्बई में ढाले गए ब्रिटिश मुद्रा को मुग़ल साम्राज्य में अनुमति। इसे 1717 ई0 का शाही फरमान (मैग्नाकार्टा) कहा गया। इसे ‘मुक्त व्यापार पत्र’ या ‘दस्तक’ भी कहा जाता है।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर की नियुक्ति और इस प्रमुख घटना के परिणामस्वरूप हुआ था, जिसने इस कम्पनी को भारत में व्यापारिक और राजनीतिक प्राधिकृति प्राप्त करने का मार्ग खोला।
फ्रांसीसी
- 1664 में, फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना सम्राट लुई 14वें के (कम्पने देस इण्डस ओरियंटोल्स कम्पनी) मंत्री कोलबर्ट द्वारा हुई।
- 1667-68 में, पहली फ्रेंच कम्पनी सूरत में स्थापित की गई, जिसके प्रमुख थे फ्रांसिस केरो।
- 1669 में, दूसरी फ्रेंच कम्पनी मसूलीपट्टनम में मकीरा द्वारा स्थापित की गई।
- 1673 में, फ्रांसीस मार्टिन ने वेलिकोण्डापुर के सूबेदार शेरखा लोदी से पुदुचेरी गाँव को प्राप्त किया।
- 1674 में, चन्द्रनगर की स्थापना बंगाल के सूबेदार शाइस्ता खाँ से हुई।
- 1693 में पांडिचेरी को पहले डचों ने जीता था, लेकिन 1697 में रिजविक की संधि के बाद यह पुनः फ्रांसीसियों के पास आया। 1746 में महास पर कब्जा किया (डूप्ले)।
फ्रांसीसी कम्पनी भारत में आगमन
- फ्रांसीसी कम्पनी भारत में आगमन किया, और इसके परिणामस्वरूप, फ्रांसीसी कम्पनी भारत में यूरोपीय कम्पनियों में सबसे आखिरी तक पहुंची।
- फ्रांसीसी कम्पनी की स्थापना 1664 ई0 में ‘सरकारी कम्पनी’ के रूप में हुई थी और उन्होंने सूरत, मसूलीपट्टनम, पांडुचेरी, और चन्द्रनगर में अपनी फैक्ट्री स्थापित की।
- इस समय तक, पुर्तगाली शक्ति गोवा, दमन, और दीव तक सिमट चुकी थी, जबकि डच दक्षिण-पूर्व एशिया में पहले से ही अपने पैर जमा चुके थे।
- फ्रांसीसी ने भारत में अपना आधार बनाने का प्रयास किया और उनकी यूरोप में भी ब्रिटिश और फ्रांसीसी के बीच टकराहट हो रही थी, जिसका विस्तार भारत में कर्नाटक युद्धों के रूप में देखा जा सकता है।
कर्णाटक युद्ध (आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध)
ब्रिटिश और फ्रांसीसी कम्पनियाँ दोनों दक्षिण भारत के व्यापार में अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहती थीं। भारतीय राज्यों की कमजोरियों ने दोनों कम्पनियों की महत्वाकांक्षा को जागृत किया और इन कम्पनियों ने भारतीय राज्यों के उत्तराधिकार के मामले में हस्तक्षेप करना शुरू किया, जिससे दूसरे कर्णाटक युद्ध का मुख्य कारण बना। कर्णाटक युद्ध यूरोपीय प्रश्न का एक हिस्सा था। यानी, जब यूरोप में ब्रिटिश और फ्रांसीसी कम्पनियों के बीच संघर्ष हुआ, तो इसका प्राकृतिक प्रवाह भारत में युद्धों के रूप में व्यक्त हुआ। उदाहरण के लिए, पहले और तीसरे कर्णाटक युद्ध।
युद्ध का नाम | कारण | समाप्ति | परिणाम |
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प्रथम कर्नाटक युद्ध (1746-48) | आस्ट्रियाई उत्तराधिकार का प्रश्न एवं अग्रेज व फ्रांसीसी में युद्ध | 1748 में एक्स- ला-शैपेल की संधि द्वारा | अंग्रेज व कर्नाटक के नवाब की पराजय |
सेंटथोम का युद्ध (अडडयार का युद्ध) (सहास) 1948 | कर्नाटक के नवाब व फ्रांसीसी के बीच | फ्रांसीसी विजय | |
द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1748-54) | दोनो कम्पनियों द्वारा भारतीय राजनीति में ‘हस्तक्षेप’ | 1755 में पांडिचेरी की संधि द्वारा | अंग्रेज विजय |
अम्बूर का युद्ध (1749) | इप्ले (फांसीसी), मुजफ्फरजंग एवं चंदा साहब के त्रिगुट एवं कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन के बीच | अंग्रेज विजय | |
अर्काट का युद्ध (1752) | क्लाइव और राजा साहब के बीच | अंग्रेज विजय | |
तृतीय कर्नाटक युद्ध (1756-63) | यूरोप का सप्तवर्षीय युद्ध | 1763 की पेरिस की संधि द्वारा | अंग्रेज विजय |
वांडीवाश का युद्ध (1760) | अंग्रेज एवं फ्रांसीसी के बीच | अंग्रेज विजय |
फ्रांसीसी पतन के कारण
भारत में ब्रिटिश कम्पनी के साथ समानान्तर फ्रांसीसी कम्पनियों का तुलनात्मक अध्ययन करते समय, इसे कई कारणों से अधिक सफलता प्राप्त हुई।
- कारण भूतकालिकता – ब्रिटिश कम्पनी निजी थी जबकि फ्रांसीसी कम्पनी सरकारी थी, जिससे ब्रिटिश कम्पनी को निर्णय लेने में अधिक स्वतंत्रता थी। इससे वह क्षेत्रीय परिस्थितियों के अनुकूल निर्णय लेती थी।
- जल सेना की कुशलता – ब्रिटिश जल सेना फ्रांसीसी से अधिक उन्नत थी, जिससे उन्हें समुद्री क्षेत्र में अधिक शक्ति मिली।
- संसाधनों की पर्याप्तता – ब्रिटिश कम्पनी के पास अधिक संसाधन और आर्थिक गतिशीलता थी, जो उन्हें व्यवसायिक गतिविधियों में अधिक सफल बनाता था।
- क्षेत्रीय संप्रभुता – ब्रिटिशों का फ्रांसीसियों की तुलना में अधिक क्षेत्रों पर अधिकार था, जिससे उन्हें महत्वपूर्ण स्थानों का नियंत्रण मिला।
- योग्य नेतृत्व – ब्रिटिश कम्पनी के पास योग्य नेतृत्व की कमी नहीं थी, जबकि फ्रांसीसी कम्पनी को इस में कमी थी।
- अन्य कारण – ब्रिटिशों को प्लासी के युद्ध के पश्चात् अपार संसाधनों की प्राप्ति हुई, जिससे उन्हें तृतीय कर्नाटक युद्ध में अग्रणी भूमिका मिली।